Thursday, November 8, 2007

संतो का जीवन-3

3़ जीवन एक कुशलता है उसे काफी सजग होकर ही पकड़ पाएगें अन्यथा वह चूक जाता है
जीवन जीने की कला ही जीवन की कला है, यदि जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है तो जीवन
जीने की कला सीखने की कोई जरूरत नहीं कोई और चिंता नहीं है । जीवन बाहर से सिखना
नहीं है, बाहर का जीवन जीवन हो या नहीं वह आरोपित होगा, जैसे गधा ‘ोर की खाल
पहन ले ।
क्या मूझे किसी ने इस संसार में भेजा है या मै स्वेच्छा से यहां आया हूं।
यदि मैं स्वेच्छा से आया हंू तो किसलिए आया हूं क्या उद्देष्य है मेरा
कहीं मै अपनी अज्ञानता या भूल-चूक से यह बस भोगने पर बाध्य नहीं हूं । सुख, दुख
पीड़ा, कष्ट, संर्घष।
यदि मैं भेजा गया हूं तो क्यों भेजा गया हंू फिर तो मैं स्वतंत्र नहीं हूं जिसने भेजा है मै
उसका गुलाम हूं फिर मेरी कोई मुक्ति नहीं जिम्मेदारी नहीं वह क्या काम होगा जिसके लिए
मुझे भेजा गया है ।
यहां जो भोग रहा हूं कश्ट, दुख, विवाद, त्रासदी, सुख, आनंद, तनाव, क्या यह भोग मै अपने
वजह सक हर रहा हूं या जो भेजा हे उसकी वजह से ।
किसने भेजा हे क्या वह सचमुच है या मेरा कल्पना या भ्रम है मै अपने जिम्मेवारी से बचने
के लिए कहीं कल्पना का ईष्वर खड़ कर उस पर निर्भर रहा हूं । यदि वह सचमुच कोई है तो
फिर कौन है, कहॉ है, कैसा है । फिर उसे किसने कहॉ से भेजा है, क्या यह भी उसकी
जिम्मेवारी है । क्यंू भेजा है ।
मेरे लिए कभी भी भूलकर भी चिंतित मत होना । मैंने तो प्रभु के हाथें में जिस दिन से स्वयं
को सौपा है उसी दिन स्वयं को सब चिंताओं से पार हो गया हूं असल में स्वयं को स्वयं ही
सम्हालने के अतिरिक्त और कोई चिंता ही नहीं है ।
अहंकार ही चिंता है उसके पार तो कैसी चिंता किसको चिंता किसकी चिंता
दूसरे मेरे जैसे व्यक्ति सूली चढ़ने को ही पैदा होते हैं । वहीं हमारा सिंहासन है । फूल नही
पत्थर बरसे तभी हमारा कार्य हो पाता है ।
लेकिन प्रभु के मार्ग पर पत्थर भी फूल ही बन जाते हैं । और उसके विपरित मार्ग पर मार्ग
पर फूल भी अंतत: पत्थर सिद्द होते हैं । इसलिए जब मुझ पर पत्थर बरसे तब खुश होना
और प्रभु को धन्यवाद देना ।
सत्य का सदा ही, ऐसा ही स्वागत होता है न माने मन तो पूछो, सुकरात से, जीसस से, बुद्द
से कबीर से मीरा से

संतो का जीवन-

2 ़ संत खाली घाटी की तरह होते हैं किसी भी वस्तु से
अपने को नहीं भरते क्योंकि भ्ररना सदा दूसरे
वस्तुओं से होता हैं और कुछ भी जो दूसरा होता है
वह अपना स्वभाव नहीं है, यदि वह धन वैभव,
वस्तु, परिवार, नाम, तज, तपस्या ही क्यों न हो ।
वे अपने कोरे पन (खाली पन) भी संभालते रहते हैं ।
वे अहंकार (मेरे पन) से तो मुक्त होते ही हैं अपने
अस्थिरता को भी गला लिए रहते हैं ।
वे कभी किसी जीवन में दखल नहीं देते, ना ही कभी
किसी को किसी भी तरह की सलाह मशवरा देते हैं ।
वे कभी अपने को ना प्रदर्षित करते हैं, ना घोषणा
करते हैं ।
वे पता भी चलने नहीं देते की वे कोई महत्वपूर्ण हैं ।
चूकि वे पल-पल (क्षण-क्षण) जीते हैं - इसलिए
उनका कोई भविष्य नहीं होता ।
वे आज का भोजन आज की कर लेते हैं कल की
फिक्र नहीं करते ।
वे कल का कोई आयोजन नहीं करते ।
वे हमेशा मृत्यु के लिए तैयार रहते हैं ।
वे प्रति राित्र को ‘शून्यवत् सोते हैं, एवं
शून्यवत जागते हैं ।

Wednesday, November 7, 2007

संतो का जीवन


संतो का जीवन-
वे जीवंत रहतें हैं वे जगत में हेो है पर गहन अभिनय करते हुए रहते हैं।
वे किसी से जुड्ते ( मोहब) नहीं होते ।
वे अपति‍िष्ठत रहकर जीते है ।
वह अघोिषत रह कर जीते है ।
हि अज्ञानी मूढ की तरह जीते है (बालवत) ।
वह किसी भी चीज का दावा नहीं करते ।
वे किसी पर निर्भर नहीं होते अपना उत्तरदायित्व स्वयं होते हैं ।
जो होते है उसे होने देते हैं कोई दखल नहीं देते ।
कर्म करके भी अकर्ता बने रहते हैं ।
किसी भी कर्म के लिए उत्सुक नहीं होते अस्तित्व जो करा देते कोई श्रेय भी नहीं लेते ।