Thursday, November 8, 2007

संतो का जीवन-

2 ़ संत खाली घाटी की तरह होते हैं किसी भी वस्तु से
अपने को नहीं भरते क्योंकि भ्ररना सदा दूसरे
वस्तुओं से होता हैं और कुछ भी जो दूसरा होता है
वह अपना स्वभाव नहीं है, यदि वह धन वैभव,
वस्तु, परिवार, नाम, तज, तपस्या ही क्यों न हो ।
वे अपने कोरे पन (खाली पन) भी संभालते रहते हैं ।
वे अहंकार (मेरे पन) से तो मुक्त होते ही हैं अपने
अस्थिरता को भी गला लिए रहते हैं ।
वे कभी किसी जीवन में दखल नहीं देते, ना ही कभी
किसी को किसी भी तरह की सलाह मशवरा देते हैं ।
वे कभी अपने को ना प्रदर्षित करते हैं, ना घोषणा
करते हैं ।
वे पता भी चलने नहीं देते की वे कोई महत्वपूर्ण हैं ।
चूकि वे पल-पल (क्षण-क्षण) जीते हैं - इसलिए
उनका कोई भविष्य नहीं होता ।
वे आज का भोजन आज की कर लेते हैं कल की
फिक्र नहीं करते ।
वे कल का कोई आयोजन नहीं करते ।
वे हमेशा मृत्यु के लिए तैयार रहते हैं ।
वे प्रति राित्र को ‘शून्यवत् सोते हैं, एवं
शून्यवत जागते हैं ।

No comments: